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मेरा अनादि काल से कण-कण में वास है / राजेन्द्र वर्मा

मेरा अनादि काल से कण-कण में वास है,
पर दृश्यमान हूँ उसे, जिसमें उजास है ।

यद्यपि समुद्र और बूँद हैं पृथक्-पृथक्,
फिर भी समुद्र बूँद में करता प्रवास है ।

मेरी सदैव दैन्य से प्रगाढ़ता रही,
स्वर्गिक विलासिता मुझे आती न रास है !

तू जिस अनाम के लिए व्याकुल रहा सदैव,
तुझमें ही बैठा ले रहा वो उच्छ्वास है ।

स्वीकारता है क्यों तू परिस्थिति की दासता,
जब मुक्ति का उपाय भी तेरे ही पास है !

तेरे तो हाथ कर्म है, परिणाम तो नहीं,
जो होना था, सो हो गया, फिर क्यों उदास है ?