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मेरा अपना घर / मनीष मूंदड़ा

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आज फिर मेरे बूढ़े हो चले मकान ने मेरे ख़््वाबों में दस्तक दी
उसकी उम्र करीब सौ पार कर चालीसहो चुकी होगी अब
वो जर-जर-सा खड़ा मकान कभी मेरा घर होता था
सामने अस्पताल में जन्म हुआ था मेरा
वहीं घुटनो के बल, मैंने चलना सीखा
बोलना और पहले पहल दीवारों पर लिखना सीखा
दौडना सीखा
हँसना, रोना और चुप रहना सीखा
पेड़ पर चढना, मिट्टी से खेलना और पतंग उड़ाना
सबकुछ मानो उस घर के आहते में ही तो सीखा

उस बड़े से मकान में मेरी एक छोटी-सी अलमारी होती थी
जिसमें ना जाने कितने सपने छुपाए थे मैंने
किताबों को जमाया
पेंसिलों को सजाया
कई सारी तस्वीरों को लगाया
आज फिर याद आया अलमारी का वह खंड
जिसने मेरा साथ दिया हमेशा
आज भी वह अलमारी अपने अंदर मेरे उन छोटे-छोटे सपनो को संजोये होगी
वो मेज वह कुर्सी पास कहीं टूट चुकी होगी
वो पलंग अब इंतजार कर दम तोड़ चूका होगा
या फिर किसी और के घर बेच दिया होगा
उस पर अपने प्रकार से घढे मेरे नाम को
पर फिर भी उसने संभाले रखा होगा

वो खिड़की जहाँ मैं खड़ा हो चम्पा के पेड़ को तकता
सूर्यास्त को देखता तो कभी चहकते पंछियों से बातें करता
आज भी अपनी सलाखों पर मेरी मूठठीयों के निशान को संभाले होगी
कितना कुछ देखा था मैंने उस खिड़की से
और कितना कुछ देखा था उस खिड़की ने मुझमें
मेरा बीता कल, मेरा आनेवाला पल
मेरे आँसूँ, तो मेरी खीज, मेरी हथेलियों का पसीना
सब कुछ उन हरी सलाखों पर चस्पाँ है
बेशक वह काली पड़ गयी होंगी
मेरे इंतजार में अब थक गयी होंगी
वो बड़ा-सा आँगन और वह चारदीवारी
जहाँ मैंने क्रिकेट सीखा
दौडना, हारना सीखा, सीखा वहाँ मैंने जीतना भी
वो आँगन अब दरारों में होगा
अपनी हालत पर अब रोता भी ना होगा
वहीं आँगन से खुलता था एक हरा दरवाजा

कुंएँ की ओर
जिसकी ओट में हम बैठा करत थे, पानी भरते
अब अकेला वहीं खड़ा होगा
उसका पानी भी अब ठहरा होगा
अमरूदों के पेड़ अब कट चुके होंगे

पर मैंने देखा नारियल का वह लम्बा पेड़ अबभी यूँ ही खड़ा हुआ हैं
पत्तियाँ कुछ कम हैं, लेकिन फल दे रहा है
बगीचे की दीवारें, जो कभी हमारी ढाल थी
अब नदारद है
गिरने से पहले दीवारों ने मुझे पुकारा होगा
मैं था नहीं वहाँ, कहीं दूर अलग दुनिया में
अब नयीं दीवारों से घिरा
वो चिल्लाहटों को कहाँ सुन पाया मैं

कितने कोने थे उस घर में
हरेक ने मुझे छुपाया था, सम्भाला था
मेरे कुरेदन को झेला था
मुझे अपना समझ कर पाला था
वो कोने अब निढाल होंगे
कुछ टूट चुके होंगे तो कुछ अब टूटने को होंगे
मेरी वह साइकिल अब मुझे दिख नहीं रही
मेरे वह जमा किए सारे पत्थर भी गायब हैं
वो लटाइ
वो क्रिकेट का बल्ला
मेरी रजाई
मेरी हवाई चप्पल
मेरी लालटेन, मेरी शीशे की ढि़बरी
मेरा बचपन
मेरा वह घर
कुछ भी नहीं बचा अब

कहने को कई घर हैं अब
रोशनी की कमी नहीं अब
मख़मल है
कारें है
पर मेरी साइकिल अभी भी याद है मुझे
मेरा वह अपना घर अभी भी बाँधे है मुझे।