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मेरा अहम / जोशना बनर्जी आडवानी
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मेरे हृदय मे आ बसी हैं जाने कितनी ही शकुंतलाऐं
जाने कितने ही दुर्वासाओं का वास है हमारे बीच
मुझे अपनी वेदना के चीत्कार के लिए अपना कमरा
नही एक बुग्याल चाहिए
चाहिए एक नदी, एक चप्पू चाहिए
कोई देवालय मेरे प्रेयस से पवित्र नही
कोई धूप मेरी प्रेमकविता से गुनगुनी नही
हे जनसमूह हे नगरपिता
तुम मेरे अन्दर से तो निकाल सकते हो कविता
पर उस प्रेमकविता से मुझे बाहर नहीं निकाल सकते