मेरा गाँव / छवि निगम
कहीं उकड़ूँ छिपा बैठा है
चौड़ाती सड़कों के किनारे
मेरा गाँव गर्द से ढका बैठा है
कानों में उँगलियाँ खोंसे
पलकें भींचे
बहरा हुआ हाइवे के शोर से
धुंधलाते तारों को तकते हुए
कहीं भाग जाना चाहता है
मोहब्बत है उसे एक पुल से
झील को भी बेइंतहा चाहता है
टप्पेबाज शहरों को
शिकायती ख़त भेजा करता है
दौड़ते काफिलों से नफ़रत उसको
भागते पहियों से खौफ़ है
कुचल न जाएँ नन्हे खेत कहीं
दहशत में सारी रात जगा करता है
बंजर गला हो आया
कल कुएं में जब झांका था
एक ख़ुश्क आँसू था
वही गटके बैठा है
हल्की सी हरारत रहती है
कमर नौहरा के चल पाता है
हथेलियों की मेड़ें खुरचता है
जिगर का टुकड़ा
उसका हरिया
दिखता अब ढाबे का छोटू
और कहीं अँधेरे के तले
बिट्टो को बिकते देख कलपता है
अम्मा के लीपे सतिये में
मुंह गढ़ाए सुबकता है
मेरा गाँव अकुलाता है
भटकता है
आँचल में लगी गांठ में हल्दी संग लरजता है
मचलता है
अब नक्शे में धुंधला जाता है
पर टीस बन धड़कता है
फागुन कजरी रसिया सोहर की गुनगुन
परियों की कहानी सा
नीदें लाती किसी लोरी में
यूँही किसी मोड़ पर याद आ जाता है...
अपनी मुट्ठी में खोटा सिक्का दबाये बैठा है
सीने में एक फाँस है
मेरे शहर के कोने में
मेरा गाँव दुबका बैठा है।