भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरा गुड्डा चुरा लिया है / प्रकाश मनु
Kavita Kosh से
पापा,
तंग करता है भैया!
कार तोड़ दी इसने मेरी
फेंक दिए दो पहिए दूर,
हॉर्न टूटकर अलग पड़ा है
बत्ती भी है चकनाचूर।
कहता-पापा से मत कहना,
ले लो मुझसे एक रुपैया!
लकड़ी का था मेरा हाथी
इसने दोनों कान उखाड़े,
हिरन बनाए थे मैंने दो
कॉपी से वो पन्ने फोड़े।
तोड़-फोड़ डाली, पापा जो
मेले से लाई थी गैया!
इसने ले ली गुड़िया मेरी
ठुमक-ठुमक पीती जो पानी,
एक नहीं, करता रहता है
हरदम ऐसी ही मनमानी।
मेरा गुड्डा चुरा लिया है,
कहता-ले लो चोर-सिपैया!