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मेरा घर / सरोज परमार
Kavita Kosh से
उतरे है चाँदनी चुपके-से
जिसकी ढलुआँ छत पर
ओस-नहाए सुर्ख गुलाब
सजाए बन्दनवार अक्सर
ठिठुरते आँगन में जिसके
पसरे है रिश्तों की धूप
दहलीज़ पर बैठी अम्मा
प्यार बाँटती अंजुरी भर.
सदा आमन्त्रन देते से
बाँहें फलाए जिसके दर
वो मेरा घर ! हाँ मेरा घर.