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मेरा चांद / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मेरा चांद मुझसे दूर है !
सूने व्योम में
रोती अकेली रात है,
चारों ओर से
तम की लगी बरसात है,
- इसलिए ही आज
- निष्प्रभ हर कुमुद का नूर है !
किस एकांत में
जाकर तड़पता है सरल,
भय है प्राण को
भारी, न पीले रे गरल,
- क्योंकि ऊँचे भव्य
- घर में क़ैद है, मजबूर है !
ये आँखें क्षितिज
पर आश से, विश्वास से
निश्छल देखतीं
हर रश्मि को उल्लास से,
- क्योंकि यह है सत्य
- उसमें चाह मिलन ज़रूर है !