मेरा जीवन / संतोष कुमार सिंह

ज्यों हिम खण्ड गला करते हैं,
वैसे ही हर आश गली।
जो रवि की गति हो संध्या को,
वैसे मेरी उमर ढली।।

रहा घूमता मेरा जीवन,
जैसे घूमे नित्य मही।
मैं तो कुछ भी कह न सका पर,
दुनिया ने क्या-क्या न कही।।
मिलते रहे अभाव मिली ना,
सुविधाओं की कहीं गली।..........
जिनको मैंने प्यार किया वे,
पैसे के भूखे निकले।
सोचा जग में होय हँसाई,
बात यहीं तक है ढक ले।।
सूख रहा ज्यों डाली सूखी,
बिन पानी के कोई कली।..........
वक्त आइना दिखा रहा है,
खुद के दाग तभी दीखे।
बिना पुण्य के जीवन-घट भी,
रखे हुए मेरे रीते।।
इच्छाओं के बिरवा सूखे,
कभी न डाली एक फली।........

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