मेरा झूठ / अंकिता जैन
झूठ जो जिया है मैंने
सालों साल
पैदा होते ही
कि मैं प्यारी बेटी हूँ
नहीं हूँ मगर
क्योंकि प्यारे तो बेटे होते हैं
कि चाँद आएगा किसी रात
मुट्ठी में मेरी
नहीं आएगा मगर
क्योंकि मुट्ठी में आते हैं
सिर्फ बेंत के निशान
जो मारे हैं किस्मत ने
जिसके निशान रहेंगे
चिता पर जल ना जाए वो मुट्ठी जब तक
कि गहना है इज़्ज़त मेरी
जिसे लूटा
बार-बार
उसने, तुमने, और किसी ने
लुटने पर जिसके फूटे फब्बारे
दिल के भीतर
चीखों के,
दर्द के,
बरसा जो कई बार आँखों से
आग बनकर,
तपिश में जिसकी जलती रही मैं
और पकता रहा वो गहना
होता रहा सुंदर, सुघड़, मजबूत
कि सब ठीक हो जाएगा
जब देहरी बदलेगी
बदलेगा
जब हवा पानी
सूरज सजेगा माथे पर
बिछेंगे तारे पैरों में
भरेगा आँचल जब
तब भूल जाना उन चीखों को
जो निकलीं थी खोदकर तुम्हें
खून से लथपथ
खुशी के साथ
हर बार ऐसी ही निकलती है
खुशी तुम्हारी
सच बनकर
झूठ, वो महज़ भ्रम है
उसे ओढादो आँचल
चिपकालो छाती से
और ठूँस दो कुछ बूँदें
सच की
उसके मुँह में जो
हर बार मचल उठता है
माहवारी के किसी दर्द की तरह
कोख में तुम्हारी
बार-बार
हर बार।