मेरा डर / मधुछन्दा चक्रवर्ती
मेरा डर
मुझे हर रात डराने चला आता है
पता नहीं
कितने अनगिनत
विक्राल, घिनौने, विचित्र चेहरों को लेकर
मेरे सामने ला खड़ा करता है?
उनके हाथों में हथियार नहीं होते
पर फिर भी मुझे उनसे डर लगता है।
वे सवाल पुछते है मुझसे
न जाने कैसे-कैसे?
उनके उन सवालों से
तानों से
फैसलों से
मेरे दिये गये जवाबों के बदले में लौटे जवाबों से
डर लगता है
रात को एक किताब बनकर
मेरा डर
डराने चला आता है।
जब मैं पलके मूंद कर
सब कुछ भूलाने की कोशिश करती हुँ
तो यही सब कुछ
फिर से मेरी बंद आँखों में भी चले आते हैं
अंधकार तब ब्रह्माण्ड में बदल जाता है
और ये सब बन जाते है ग्रह-नक्षत्र
और तब
मुझसे फिर जवाब चाहते हैं
जवाब के लिए खुद में वह लड़ पड़ते है
एक-दूसरे से खुद टकराते हैं
इन टकराहट का शोर
इतना भयानक है कि मुझे डर लगता है
मेरा डर
ज़लज़ला बनकर
डराने चला आता है।
जब बारिश की बूंदों में
उन बूंदों की ठण्डक में
डर की आग से राहत मिलती है
तो वहा भी चला आता है
बन जाता है तूफान
या सैलाब
बहा ले जाता मेरे सुकून से भरी दुनियाँ को
ले जाना चाहता है मुझे भी
बहा के
पानी में डूबे हुए अरमान
सपनों की लाशों-सा बनकर
मेरा डर
डराने चला आता है।
मेरा अस्तित्व
मेरी कोशिश
मेरे जज़बात
मेरी ख़्वाहिश
मेरा काम
मेरे वादे
सब सब अब इस डर की चपेट में है
वक्त खाली बीतता देख कर
कुछ कोशिश करती हुँ
तब
खत्म हो चुका है वक्त
ये पैगाम बनकर
मेरा डर
डराने चला आता है।
मेरा डर
हर रात मुझे डराने चला आता है।