भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा तकिया छीन लिया गया / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न मिले किसी रोज इस्‍तरी की गई धुली कमीज
देह जैसे रूठने लगती है ना-नुकुर करती
दिन जैसे बीतता है असहज या लगभग मनहूस
मानो हर आंख घूरती लगती जबरन ओढ़ी यह पुरानी कमीज

हालांकि तीन दिन पुरानी बगैर धुली कमीज पर इस्‍तरी फेर
हम कुछ तो मनहूसियत कम कर ही लेते हैं अक्‍सर

फक्‍कड़ी यदि मौलिकता की हद को छू सके
भूल भी सकते हैं किसी पोशाक का अहसास तक

नहाते वक्‍त तो बिना कपड़ों के लगती है हमें अपनी ही पुरानी देह अलौकिक
कि कितना कम होता है इस तरह अपनी देह को निहारना

आसान कहां रह गया लेकिन झटक देना फालतू चीजों का अहसास
दिन उगा हो उसे लौटना है शाम की तरफ और
शाम को रात में तब्‍दील होने से रोकना हमारी पहुंच से बाहर
रात आएगी तो यह तय है घेरेगी नींद कि
वह एक थके मानुष की अकेली पूंजी है

नींद होती है कहीं आंखों में, आंख चेहरे पर और
चेहरा सिर का हिस्‍सा है हम बखूबी जानते हैं

नींद किसी भी तरफ से आ सकती है
सृष्टि या उससे बाहर अदृश्‍य लोक से कि
जैसा सपने में कई दफा अनुभव होता है हमें

नींद फिर भी आदत के मुआफिक ही आती है
भली से भली हो स्‍वागत की मुद्रा
कितना भी सजा-संवार के रखो कमरा या कि बिछौना प्रसन्‍न
एक अदद तकिया लाजिमी है नींद के मन-मुआफिक
कितना भी प्राचीन, तुड़ा-मुड़ा किसी भी हद तक
मैली-कुचैली गंध में नहाया कि क्‍यूंकर दिक्‍कत पेश नहीं आती

मां के बाद छूटी सबसे सुरीली लोरी उसी के पास है बची
कितनी भी उमर हो कि अब तक रवानगी के बाजू
जितनी भी बची हो हिस्‍से में घंटे-आध घण्‍टे की नींद सही
यकीनन रूठी रहती है बगैर उसके

किसकी है दुष्‍टता इस कदर कि मेरा तकिया छीन लिया गया!