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मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं / वंदना गुप्ता

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प्रेमिका :


सुनो
 
प्रेमी :
हाँ
प्रेमिका :


कुछ कहना था

प्रेमी :

हाँ कहो ना
मैं सुन रहा हूँ
 
प्रेमिका :

नहीं, रहने दो
शायद तुम नहीं समझोगे
 
प्रेमी :
तुम कोशिश तो करो
मैं भी कोशिश करूंगा
 
प्रेमिका :

मुझे तुम्हारी चुप में छुपी
ख़ामोशी का दर्द पीना है
दे सकोगे
 
प्रेमी :
मैं खामोश कहाँ हूँ
बोल तो रहा हूँ (दर्द के गहरे कुएं से निकली आवाज़ सा )
 
प्रेमिका :
क्या दे सकते हो?
 
प्रेमी :
मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं
 
प्रेमिका :
अच्छा ऐसा करो
अपने अनकहे ज़ज्बात
कुछ बिखरे अहसास
कुछ टूटे पल
कुछ सिमटी घड़ियाँ
कुछ अंतस के रुदन
कुछ वो दिल का
जला हुआ टुकड़ा
जिस पर मेरा
नाम लिखा था
सिर्फ इतना मेरे
नाम कर दो
मैं तुम्हारा हर गम
हर आह, हर आँसू
हर दर्द पी जाना चाहती हूँ
क्या तुम इतना भी
नहीं कर सकते
मेरे लिए
 
प्रेमी :
नहीं, मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं
सब वक्त की
आँधियाँ उडा ले गयीं
ज़माने ने मेरा
हर ख्वाब, हर ख़ुशी
हर तमन्ना,हर आरज़ू
कब छीन ली
पता ही न चला
अब यहाँ सिर्फ
अरमानो की
सुलगती हुई लकड़ियाँ
सिसक रही हैं
मेरी जिंदा लाश
अब सड़ने लगी है
जब से तुम गयी हो
 
प्रेमिका :

कब तक मेरे बुत से
दिल बहलाओगे
मैं तुम से जुदा होकर भी
तुम्हारी यादो की
क़ैद से आज़ाद
न हो पाई हूँ
बस बहुत हुआ
अब मेरी सारी
अमानतें मुझे दे दो
तुम तो बुत
के सहारे जी भी लेते हो
मगर मैं
मैं तो पल- पल
तुम्हें सिसकते
तड़पते देखती हूँ
सोचो मुझ पर
क्या गुजरती होगी
दे दो न मुझे
मेरे सारे लम्हात
शायद कुछ पल
का सुकून मेरी
रूह को भी मिल जाये
तुम्हें मेरे सूखे
अश्कों की कसम
दोगे न
 
प्रेमी :
 
मगर, मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं
 
रूह और जिस्म
के इस प्रेम पर
सितारे भी
रश्क कर रहे थे
कुछ पल इस
पवित्र प्रेम के
पीने को तरस रहे थे
रूह और जिस्म के
इस अद्भुत मिलन के
गवाह बन रहे थे