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मेरा दम मेरे अन्दर घुट रहा है / रविकांत अनमोल

मिरा दम मेरे अन्दर घुट रहा है
कहाँ है जो दरीचे खोलता है

हमेशा आइनों से झाँकता है
न जाने क्या वो मुझसे चाहता है

वो अपनी हर नज़र से हर अदा से
हज़ारों राज़ मुझपर खोलता है

सजाने के लिए दुनिया को शायद
फ़लक पर रंग कोई घोलता है

मैं जितना इस जहाँ को देखता हूँ
मिरे अन्दर कहीं कुछ टूटता है

जवाब उनके नहीं मिलते कहीं से
सवाल ऐसे मिरा दिल पूछता है

तिरी ही रहमतों से मेरे मालिक
चमन मेरी ख़ुशी का खिल रहा है

ये मेरी सोच का प्यासा परिंदा
तिरी बारिश की बूँदें पी रहा है

मैं शायद ख़ुद को खो के तुम को पा लूँ
मगर इतना कहाँ अब हौसला है

मैं पल-पल सुन रहा हूँ बात उसकी
मेरे कानों में कोई बोलता है