भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा दिन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा दिन
शुरू होता आपसे
खत्म आप पर
जीना चाहता हूँ भोर को
आपके प्रणव श्वास -प्रश्वास से
पाखी के कलरव के साथ
आपकी मधुरा वाणी का पान
दे जाता मुझे लोकोत्तर आनन्द
साँझ होते ही
ढूँढता हूँ तुम्हें
जैसे खोजता नन्हा बच्चा
सूने नीड में
दाना -दुनका खोजने गई माँ को
और जब रात हो जाती है
नींद के अंक में
जाने से पहले
मैं भी खोजता हूँ तुमको
कि
तुम्हारे दो प्रणयसिक्त शब्द मिल जाएँ
ताकि मेरे अर्धमुद्रित नयन
खो जाएँ स्वप्नलोक में।
यही एक पथ बचा है
जो तुमको मुझसे जोड़ता है
जब तुम नज़र नहीं आते
तो
मेरी भोर अँधेर है
मेरी निशा
गहन कालरात्रि बन जाती है
यह व्रत है तुमसे जुड़ने का
पलभर इन बेलाओं में
मिल जाना।
-0-