मेरा बचपन मेरी आहें
मेरी बीती बात कथाएं
चुपके से उठ अन्तर से
आँसू बन जाती हैं
याद तुम्हारी रह-रहकर क्यों आज सताती है?
तब बूढ़ा तरु पात हिलाकर
कहे हवा से कुछ समझाकर
तुझको पगले इस जग की रस्में
कुछ रास न आती हैं
धूल उड़ी तो अन्त समय की याद दिलाती है!
तभी कोयलिया वन में गाए
जग मर्यादा राम निभाएं
पर कान्हा को तो ब्रज की
सखियाँ ही रिझाती हैं
याद तुम्हारी रह-रहकर क्यों आज सताती है?
तभी श्वान रोए करुणा से
व्याकुल हो जग के लांछन से
मैं रात्रि को रात्रि मुझे
निज व्यथा सुनाती है
धूल उड़ी तो अन्त समय की याद दिलाती है!
(29 अगस्त 1981)