भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरा बसन्त / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
गई शीत ऋतु, खिल गई धूप
मोहक हुआ प्रकृति का रूप
खिल गई पीली सरसों,
नईं कोंपलें, नये हैं पत्ते
बौर आ गये हैं शाखों पर
चहक उठे हैं पंक्षी सारे
जो थे अब तक गुप-चुप।
खिल गई पीली सरसों।
हुई गुलाबी धूप सुबह की
ओस बन गये मोती
मन्द पवन जब चले भोर में
कोयल तब करती है कूक।
खिल गई पीली सरसों।
पुष्पित पल्वित हुई प्रकृति
सृष्टि सजी है दुल्हन-सी
देख-देख नव सृजन मनभावन
हृदय में उठती है हूक।
खिल गई पीली सरसों।
उत्साहित हैं सब नर-नारी
कर्म कर रहें कृषक
छाई है मादकता चहुँ ओर
देख बसन्त का सुन्दर रूप
खिल गई पीली सरसों।