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मेरा मन एक पृथ्वी / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

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मेरा मन भी एक धरती है
बरसों से वह रही हैं नदियाँ
युगों से उग रहे हैं जंगल
मेरे मन में हज़ारों सल्तनतों का इतिहास दर्ज है
यहीं है मेरे मन की समृद्धि

मेरा मन एक संसार है हरा भरा
जहाँ हर पल नए का स्वीकार है
मेरा मन एक हरे पेड़ की जड़ से जुड़ा है
जहाँ आते रहते हैं नए पत्ते
हवा न जाने कौन सी सुगन्ध लेकर आई
हाल ही में जब पानी बरसा
उसकी हवा जैसे कोई पता लिखा था
सुगन्ध से लिखा हुआ पता
हरियालियों में नदियों न जाने किसी का पता
मैं खड़ा अपने शहर के बाहर
वही सुगन्धित हवा सड़क छोड़ कर चली गई
क्यों मुझे सुगन्धित हवा सड़क छोड़ कर चली गई
क्यों मुझे चलते रहना चाहिए
उस सुगन्ध की ओर
जिसका हर पल सुगन्ध को लिए था