मेरा रूप तुम्हारा दर्पण / बालस्वरूप राही
कैसे छूटे मोह तुम्हारा कैसे सहूँ बिछोह तुम्हारा
ऐसा एक न दीखा जग में, जिसे देखकर तुम्हें बिसारूँ।
पीछे पथ था आगे पथ था एक अनागत एक विगत है
रुकी रुकी पालकी सांस की ठहरा सा जीवन का रथ है
थकी उमरिया भटक भटक कर इस पनघट पर उस पनघट पर
हृदय विरत है, काया श्लथ है, अंतर की वेदना अकथ है
किसने मन की बात कहूँ मैं, बोलो, किसका हाथ गहूँ मैं?
ऐसा एक न दीखा पथ पर तुम्हें समझ कर जिसे पुकारूँ।
मैं सोई तो सपन पठाये, किरन भेंट की जब मैं जागी
तुमने दान दिया युग युग तक, मुझसे कोई वस्तु न मांगी
तृष्णा ने ऐसा भटकाया मैंने द्वार द्वार खटकाया
तुमसे बिछुड़ी एक बार तो मिल न सकी फिर मैं हतभागी।
हर नगरी हर डगर निहारी,सब ही मुझसे मिले भिखारी
तुम सा दाता एक नहीं है किसके आगे हाथ पसारूँ।
जब से तुम इस ओर न आये खिला न चंदा जली न बाती
गहन अमावस भटक रही है मेरे आंगन में बिलखाती
सागर से गंभीर हो गये तुम ऐसे बेपीर हो गये
एक न भेजा मिलन सन्देसा एक बार भी लिखी न पाती।
गिनते गिनते दिन पखवारे घिसे अंगुलियों के नख सारे
द्वार खड़े अवसान पुकारे बोलो कब तक पंथ निहारूँ?
ध्यान बना रहता है मुझको, सुब्ह तुम्हारा शाम तुम्हारा
हर आने जाने वाले से, मैंने पूछा नाम तुम्हारा
ऐसी फैली बात जगत में ले ले कर प्रिय, नाम तुम्हारा।
आ आ कर शंकित जग सारा पूछ रहा संबंधा हमारा
किस किसका संदेह मिटाऊं मैं किस किसका भरम निवारूँ?
रूप बहुत हैं, रंग बहुत हैं, पर तुम सा छविमान न कोई
जिसने देखा एक बार वह आंख रह गई खोई खोई
हरसिंगार सा गात तुम्हारा हृदय विमल गंगा की धारा
जिस दिन तुम कुछ रहे अनमने प्रात न जागा रात न सोई
स्नेह सिक्त दृग के सावन हो, शुभ्र हिमालय से पावन हो
कैसे भाल लगाऊं चंदन, बोलो, कैसे चरण पखारूँ?
मेरा नया तुम्हारा परिचय, मेरा रूप तुम्हारा दर्पण
मेरी देह तुम्हारी मंदिर मेरा गेह तुम्हारा मधुबन
ध्यान बना राधिका तुम्हारी ज्ञान बना साधिका तुम्हारी
मेरा मन बन गया मुरलिया, मेरी सांस तुम्हारा सुमरिन
मेरे गीत तुम्हारी थाती, सुन सुन कर दुनिया भरमाती
ऐसा क्या है जिसे मान कर अपना जगवालों पर वारूँ?
कैसे छूटे मोह तुम्हारा, कैसे सहूँ बिछोह तुम्हारा
ऐसा एक न दीखा जग में, जिसे देख कर तुम्हें बिसारूँ।