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मेरी अजल को मेरा निगहबान कर दिया / नज़ीर बनारसी

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मेरी अजल <ref>मौत</ref> को मेरा निगहबान कर दिया
दी जिन्दगी कि मौत का सामान कर दिया

जिसके करम <ref>कृपा</ref> ने खाक से इन्सान कर दिया
उस पर ये तंज, कौन सा एहसान कर दिया

बख्शा उसी को दर्द जो शयाने दर्द <ref>दर्द का उपयुक्त</ref> था
दिल भी दिया खुदा ने तो पहचान कर दिया

कर दो मुआफ मुझसे न निकलेगी अब कभी
वो बात जिसने तुमको पशेमान <ref>लज्जित</ref> कर दिया

जुल्फें कहीं, निगाह कहीं और वो कहीं
इस्सर <ref>ईश्वर</ref> किसने उनको परेशान कर दिया

सबसे तो एक तरह से पूछा मिज़ाजे दिल
मुझ पर अलग से कौन सा एहसान कर दिया

अब जिन्दगी वफा न करे तो मिरा नसीब
तुमने तो मरेर जीने का सामान कर दिया

होकर तुलूए रात <ref>रात का विस्तार</ref> मिरे आफताब <ref>सूरज</ref> ने
नावक़्त चाक शब का गिरेबान कर दिया

अपनी जबाँ से तुमने सुनाकर मिरी गज़ल
मेरे हर एक शे’र को दीवान कर दिया

सहरा <ref>रेगिस्तान</ref> से कम न थी ये जमीने गज़ल मगर
जिक्रे परीरूखाँ <ref>परी जैसा चेहरा</ref> ने परिस्तान कर दिया

काशी के एक बुत ने दिखाकर झलक ’नजीर’
ताज़ा जनाब शेख़ का ईमान कर दिया

शब्दार्थ
<references/>