भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी आँखों से ऎसे दर्द का रिश्ता निकल आया / मनोज अहसास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी आँखों से ऎसे दर्द का रिश्ता निकल आया
जिसे रक्खा निग़ाहों में वही कतरा निकल आया

वो जिसको सारी दुनिया की खुदा ने बख्श दी दौलत
उसी के घर मेरा खोया हुआ कांसा निकल आया

न मेरे हिस्से में तेरी झलक थी इक नज़र को भी
बहुत परदे हटाये फिर भी एक पर्दा निकल आया

मैं दसरथ मांझी का किस्सा भी इस मिसरे में कहता हूँ
किसी की जिद के आगे नूर का रस्ता निकल आया

जो उसने कह दिया गर वाह बिन समझे ग़ज़ल मेरी
मेरे सिर भी कई अल्फ़ाज़ का खर्चा निकल आया

है कुछ तो काफ़िया बढ़िया ज़रा मुझमे भी सुस्ती है
बड़ी मुश्किल है तेरी याद का सदमा निकल आया

ज़रा सी देर मे सारा फ़साना लिख गए कातिल
बनाई बरसो की बुनियाद पे झगड़ा निकल आया

मै तेरे इश्क़ की बातों को कैसे हू-ब-हू लिख दूँ
कहीं कतरा निकल आया कहीं दरिया निकल आया

बड़ी मुश्किल में हूँ दिलबर अलग अंदाज़ से तेरे
यूँ कैसे झील सी आँखों में ये सहरा निकल आया

ग़ज़ल में मुझको अपनी बात कहने का सलीका दे
ज़रा से इल्म से "अहसास" पर खतरा निकल आया