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मेरी आँखों से ओझल हो / बलबीर सिंह 'रंग'
Kavita Kosh से
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी।
नींद स्वयं ही चुरा ले गई
मेरे मन के स्वप्न सुहाने,
अँधियारी रजनी के धोखे
भूल हो गई यह अनजाने।
जितनी निकट नींद के उतनी और कहाँ निठुराई होगी।
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी।
मिलन विरह के कोलाहल में
तुम अब तक एकाकी कैसे?
परिवर्तन शीला संसृति में
तुम सचमुच जैसे के तैसे।
ऐसी आराधना, धरा पर, कब किसने अपनाई होगी?
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी।
यौवन की कलुषित कारा में
तुम पावन से भी अति पावन,
पापी दुनिया बहुत बुरी है,
ओ मेरे भोले मनभावन!
देख तुम्हारी निर्मलता को शबनम भी शरमाई होगी।
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी।