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मेरी आवारगी पसंद है तुम्हें / आयुष झा आस्तीक

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सुनो प्रेयसी ,
मुझे मालूम है कि
मेरा आवारा होना पसंद है तुम्हें...
शर्त यह
कि तुम अपनी आवारगी की
संदूकची में
मेरे आवरापन को चिन्हीत करके
महफूज रख सको सदा के लिए...
और मैं तुम्हारी ख्वाहिशों को सूँघ कर
अपने आवारा होने का
फर्ज अदा कर सकूँ...
देखो प्रेयसी,
मेरी आवारगी तुम्हे जब भी आमंत्रित
करती थी आवारा बनने के लिए...
मंद मंद मुस्कुराते हुए,
धीरे से ना में सर
हिलाते हुए,
जुल्फें झटक कर
स्वीकारना चाहती थी तुम
मेरा आमंत्रण...
शर्त यह
कि मैं दीवार के तरफ मुंह
करके
तुम्हारी गर्म स्वाॅसों को
महसूसता रहूँ
अपनी पीठ पर ...
तुम्हारे उम्मीदों के ब्रह्मांड को
तीन कदम में माप कर,
छिपा दूँ मैं अपने अनसुलझे हालात को
तुम्हारे ख्वाबों के सिरहाने तले ...
कहो प्रेयसी,
तुम्ही तो चाहती थी ना कि
तुम्हारे देह के भूगोल पर
कविता लिखने से पहले नाभि के
ठीक मध्य में विषुवत मध्यान
रेखा खींच कर मैं आवारगी की हद तक
साइबेरिया और कालाहारी प्रदेश
के जलवायु का अवलोकन और
विवेचना करता रहूँ...
तुम्हारी खामोशी को
मैं समझ लूँ रजामंदी
ख्वाहिशों के हाँफने से पहले ही ...
लेकिन हाँ,
मेरी आवारगी में ही कोई कमी रह
गई होगी शायद जो मैं शास्वत प्रेम
को छायांकित करता रहा
इंन्द्रधनुष के रंगो से...
और तुम रँगने लगी थी अनायास
अनेकानेक नव रंगो में...
सुनो
अब तो लौट आओ!
देखो ,
तुम्हारी स्मृतियों के थपेड़ो
और
मेरी दीवानगी ने आखिर
बना ही दिया ना मुझे आवारा
वो भी उच्च श्रेणी का...
अरी हाँ!
मुझे तो मालूम ही है
कि मेरा आवारा होना
बेहद पसंद है तुम्हें...