मेरी उम्र बयालीस से आगे की परछाईं है / लीलाधर मंडलोई
सतपुड़ा के कंधे हैं मेरे पास
इसी पहाड़ से गुजर पैदल आए थे मां-बाप
कोसों का फासला अपनी पिंडलियों के भरोसे फलांगते
छोड़ते नहीं पहाड़ जैसे अपनी जगह
वे ठहरी दुपहरी की तरह रहे सतपुड़ा की अंधेरी खानों में
खुदैया की नौकरी में काटते रहे पहाड़
यह प्राइवेट एन.एच. ओझा कंपनी का जमाना था
मां के कंधे कभी कमजारे नहीं हुए कोयला ढोते
तीन फुट की सीम में कोयला खोदते पिता
हर शाम लौटते सिर पर चोट लिए गरियाते
लोग आज भी कहते हैं वे अकेले छः फटा जवान थे तब
मां का कद बमुश्किल पांच फुट
कोसती रहती थी जो मालिक ओझा की सुविधाओं को
लोग हास-परिहास में कहते हैं जब-तब
उस जमाने के अमिताभ-जया थे लछमन और रामबाई
पिता छोड़ गए कि उनका जाना बहुत जल्दी हुआ
यूं तो कोई और रास्ता नहीं था मां के सामने
सिवाय सुनाने के झिरिया माता है अब भी और
करते हैं चौकसी पंडा दादा
एक और दिया बार दो शक्ति का अष्टमी में
और हां! पहाड़ को याद करो
काटने को ये पहाड़ से दिन कि पिता ने
छोड़े हैं विरासत में पहाड़ और उसकी नदियां
उनके किस्सों में हरदम रहा अपना लांघा हुआ पहाड़
जीवन के अनेक पलाश फूले वहां
अनेक बारिशों ने भिगोया
ठिठुरती ठंड ने तोड़ी उनकी देह और एक दिन
उसकी कोख से लेकर निकले
दमा, खांसी और हड्डियों का ढांचा
लड़ता रहा तब भी अगले बीस-बाइस बरस जो
अब मां है और उसके अतीत की लहूलुहान बांहें
जिनमें बायीं ओर बच्चों को भरतीं और
दाहिने तरफ से उछारती चलीं खदान की पीठ पर गाथाएं
उसके अंदर बंद हैं कोयले की विरल किस्में
वह कोयले की राख से पहचान लेती हैं गुणधर्म
अस्सी की उमर में भरती हुई सिगड़ी
बुदबुदाती है अलस्सुबह
कितनी खराब हो गई हैं खदानें
उगलती तो हैं कोयला पर इतना खराब
कालिख-सी आग लिए धुंधुआता रहता है बस
दहकता इतना भी नहीं कि देख सकूं बहू का दमकता बूंदा
मुंह फेरने लगे हैं सब नदी, खेत और पेड़
अकेला पहाड़ है दिलाता याद पिता की
इतना अटल तो अब भी है धुंधली आंखों में
जितने स्पष्ट पिता अंदर अविचल
रो पड़ती है बाजदफा बातों में
कोई आवाज टकराकर लौटती नहीं जब वापस
तब तो पहाड़ बोलते थे बुंदेली पिता की तरह
और गाते भी थे खूब
बोलती थी हवाओं की कानाफूसी
पत्तों की हलचल और महुआर से जानवरों की आहट
पहाड़ की सूनी तलहटियों में अब न आवाजें हैं
न कोई पदचाप, न दस्तक
कोई शब्द नहीं उचारते पहाड़
न उन तक अब कोई जाता है बेसबब कि वह दूर हुआ
मां कहती हैं चल नहीं सकती अब थोड़ा भी
जा बेटा ले जा थोड़ी सी चांदनी
मेरे हिस्से की हवा, बादल, हंसी और धीरज कि
लौट सके कुछ तो मेरे पहाड़ में
झरे हुए पत्तों का हरा समय
बांसुरी लायक बांस के झुरमुट
देख पहाड़ सूख रहा है ओस बिना
रोशनी जो है चौतरफ कितनी नकली है
नहीं है सूरज की रोशनी से चिलकता
और पूनो की रात में उमगता पहाड़
इच्छा है उसकी आखिरी देख ले एक बार फिर
हथेलियों में हंसी सजाए पहाड़
मां इन दिनों बहुत जल्दी में हैं
पहाड़ की तलहटी में पूर्वज नदी है
जिसकी आवाज का जिक्र करती है रोज
मां की परछाई भी होती जा रही है तिरछी
उसकी बाईं आंख में फरकने की बेचैनी है
निपटा रही है वह अपनी आत्मा के जरूरी काम
और करती है याद सभी पुरा जनों को
खुला है पुराना संबंध कोष जो बंद रखा उन्होंने आनबूझ
मेरे पास सिर्फ कंधे हैं और मां की वत्सल हथेलियां
मेरी उम्र बयालीस से आगे की परछाई है
जो डर रही है बिल्ली के रोने से