मेरी कविताओं में आये बूढ़े कवि के लिए / प्रतिभा किरण
प्रिय बूढ़े कवि
जब तुम बूढ़े हो रहे थे
तब मैं अपनी माँ की गोद में
उनके मङ्गलसूत्र से खेल रही थी
तुम्हारे बोध का उत्सव चल रहा था
बुढ़ापे में बोध का उत्सव
कितना शानदार रहा होगा
है न?
जब तुम्हारी हथेलियों पर
तुम्हारी लिखी कवितायें नाच रही होंगी
तो मैंने गलती से नोच लिया होगा
अपनी माँ का मुख
जब तुमने किया होगा
अपनी किताबों पर हस्ताक्षर
तो मैं भूख से चिल्ला उठी होऊँगी
जब तुम सो रहे होगे
गहरी(तुम्हारी कविताओं से कम) नींद में
तो मैंने बोला होगा अपना पहला शब्द
जब तुमने चढ़ाई होगी
अपने माथे पर शिकन
तो टूटे होंगे मेरे दूध के दाँत
प्रिय बूढ़े कवि
तुम्हारा होना ही
इतना भरा हुआ था अर्थों से कि
तुम्हारे शरीर के पञ्चतत्वों में भी
पाँच बार 'अर्थ' ही आये
जब तुम कभी निराश हुए होगे
तो ज़रूर मैंने तोड़ा होगा कोई फूलदान
या भूली होऊँगी गमलों में पानी डालना
जब तुमने चश्मा लगाने के बाद भी
पढ़ने में किया होगा सङ्घर्ष
तो ज़रूर मैंने फाँद ली होगी
एक रूढ़िवादी दीवार
जब तुमने त्यागकर अन्न-जल-अक्षर
चुना होगा टुकुर-टुकुर ताकना
तो मैं रही होऊँगी
तुम तक जाने वाली सड़क पर
और फिर एक दिन तुमने मूँद ली अपनी आँख
और वह सड़क इतनी लम्बी हो गयी
कि उस पर मैं अब भी चल रही हूँ
और बूढ़ी होती जा रही हूँ