मेरी कविता का शीर्षक / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
गीत लिखो तुम चाहे जितने स्वर्ग और पाताल के
पर मेरी कविता का शीर्षक धरती का इंसान है।
उस अँधियारी कुटिया का मैं जलने वाला दीप हूँ,
भूले से भी जहाँ उजाला जाता नहीं प्रभात का।
रिमझिम करता सावन हूँ मैं उस मरुथल से खेत का,
जहाँ न बरसा बादल कोई कभी किसी बरसात का॥
देव समझ कर रहो पूजते तुम चाहे पाषाण को,
मेरे पावन मन-मन्दिर का मानव ही भगवान है॥
चिर वियोगिनी उस बगिया का मैं मादक मकरन्द हूँ,
मिला न जिसको कभी स्नेहमय आलिंगन मधुमास का।
पी-पी रट कर हार चला जो तकता नीलाकाश को,
स्वाति बूंद का जलधर हूँ मैं उस चातक की प्यास का॥
करो कामना तुम समृद्धि की अथवा पद निर्वाण की,
मानवता का आराधन ही मेरा लक्ष्य महान है॥
वह एकाकी पंथी जिसके संगी छूटे राह में,
मैं मंजिल तक साथ निभाने वाला उसका मीत हूँ।
छू न सके जिनके अधरों को गीत प्रीत अभिसार के,
उन कण्ठों में बसने वाला मैं रसमय संगीत हूँ॥
करो कल्पना सुख की चाहे तुम जप तप में ध्यान में,
जन-जन की सेवा ही मेरे लिये सुखद वरदान है॥
जिन्हें जन्म से वंचित रक्खा विधि ने सौरभ दान से,
उन सुमनों के भोले मुख की मैं मोहक मुसकान हूँ।
पल-पल हों बेचैन बनातीं सुधियाँ जिसे अतीत की,
उस सूखी सरिता के उर का कोमल कल-कल गान हूँ॥
रहो भटकते तीर्थ समझ कर तुम चाहे जिस ठौर को
हर घर का दरवाज़ा मुझको मन्दिर देवस्थान है॥