मेरी क़िस्मत मुझपे थोड़ा सा तरस खाती तो है / रविकांत अनमोल
मेरी क़िस्मत मुझपे थोड़ा सा तरस खाती तो है
ज़िन्दगानी में ख़ुशी कम ही सही आती तो है
कुछ न कुछ तो चाँद का रोटी से रिश्ता है ज़रूर
तेरी बातों की मुझे कुछ-कुछ समझ आती तो है
मेरा रस्ता क्यों ग़लत है उनका है कैसे दुरुस्त
हर डगर मेरे ख़ुदा तेरी तरफ़ आती तो है
नाम तेरा मेरे अश्कों में दिखाई दे न दे
याद तेरी मेरे दिल को अब भी तड़पाती तो है
ज़िन्दगी अब तक नहीं हारी है मेरे दोस्तो
कोई बुलबुल दूर वीराने में कुछ गाती तो है
अश्क कोई आँख से बह जाता है यूँ ही कभी
सोचने बैठूं कभी ख़ुद पर हँसी आती तो है
तेरे बिन ज़िन्दा हूँ इसके बिन नहीं जी पाऊंगा
मेरे जीने का सहारा इक तिरी पाती तो है
तेरी बस्ती में लगे या मेरी बस्ती में लगे
आग तो फिर आग है ये आग झुलसाती तो है