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मेरी काव्य यात्रा: कुछ मोड़ / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
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शेरो-शायरी का शौक़ मुझमें बचपन में ही पैदा हो गया था। सात भाइयों में मैं सबसे छोटा हूँ। मेरे कई बड़े भाई उर्दू शायरी के शैदाई थे। हिन्दी में जिसे अंताक्षरी कहते हैं उर्दू में बैतबाज़ी कहलाती हैं। मेरे कई बड़े भाई बैतबाज़ी खेलते थे और मैं उनके बीच बैठ ध्यान से सुनता रहता था। पांचवीं-छठी कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते मीर, ग़ालिब, ज़ौक़, दाग़ इक़बाल आदि से मेरा अच्छा ख़ासा परिचय हो गया। मेरे बड़े भी कभी-कभार ग़ज़ल लिखते तो मैं बड़े ध्यान से सुनता। ग्यारह-बारह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मुझर लगने लगा कि शेर कहना क्या मुश्किल है, शेर तो मैं भी कह सकता हूँ और मैंने तुकें जोड़नी शुरू कर दीं।

सन 1947 तक मैंने कक्षा में उर्दू पढ़ी। भारत स्वाधीन होने पर राष्ट्रभाषा हिन्दी की धूम मंच गई और मैंने भी हिन्दी से जुड़ने का प्रयास किया। सातवीं कक्षा से मैंने हिन्दी-संस्कृत पढ़ी, किताबों की दुनिया में खो गया। लड़कपन में अनेकानेक कृतियाँ खंगाल डालीं। परिणामतः उर्दू-हिन्दी दोनों में लिखने का क्रम चल निकला। पहली बाल कविता बाल पत्रिका 'चंदा मामा' में छपी। पारिश्रमिक स्वरूप सात रुपये मिले तो हर्ष-विभोर हो गया, जैसे कुबेर का कोष मिल गया हो। बड़ों के लिए लिखी गई अपनी प्रारंभिक कविताएं मैं प्रायः 'सरिता' में प्रकाशनार्थ भेजा करता था। कविताएं अस्वीकृत होकर लौट आती थीं और मैं बिलखता था। एक कविता के साथ मैंने संपादक को यह लिख भेजा-'मैं कविताएं भेजता रहूंगा, आप मेरी कविताएं लौटते रहें, देखते हैं जीत किसकी होती है। सर तस्लीम-खम है, जो मिज़ाजे-यार में आये। पता नहीं पत्र का असर पड़ा या मेरी कविता का, मेरी कविता का स्वीकृति पत्र आ गया। मेरी प्रथम प्रकाशित कविता का शीर्षक था 'नया विश्व'।

गीत लेखन की प्रवृत्ति किशोर अवस्था में पनपी। गीत गाकर पढ़ना तो आता नहीं था, इसलिए गीत-लेखन में और अधिक प्रवृत्त होने में थोड़ा समय लगा। मेरा प्रथम प्रकाशित गीत बना- 'कहीं तुम आंख में काजल लगाये तो नहीं बैठीं'। यह गीत उस समय की राजधानी की महत्वपूर्ण पत्रिका 'समाज' में छपा था। उसके सम्पादक थे प्रसिद्ध उपन्यासकार महावीर अधिकारी। उसके संपादकीय विभाग में उस समय के अत्यधिक लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी थे। दोनों ने गीत की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और मेरा हौसला बढ़ाया। प्रथम प्रकाशित उस गीत ने मुझे गीत-प्रेमियों में लोकप्रिय बना दिया।

मैंने कहा न कि मुझे लिखने के सिवाय और कोई व्यसन था ही नहीं। मैं शारीरिक रूप से दुर्बल था। स्वभाव से अत्यधिक भावुक था। मेरी क़लम मेरी जिगरी दोस्त बन गई। हम दोनों ज़ियादातर वक़्त साथ-साथ गुज़ारते। एक गीत छपा तो गीत-प्रकाशन का सिलसिला बेतहाशा चल निकला। 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'धर्मयुग', सरिता,'कादम्बिनी', 'समाज', 'नवभारत टाइम्स', 'दैनिक हिंदुस्तान', 'वसुधा', 'नवगीत' आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में मेरे गीतों की बाढ़ आ गई। जैसे कोई सिगरेट पीने वाला यह तय कर ले कि हर ब्रांड की सिगरेट पीकर मानूँगा। वैसे ही मैंने भी ठान लिया था कि हर बड़ी पत्रिका में अपनी कविता छपवाकर मानूँगा। नतीजा यह निकला कि अत्यधिक लेखन और प्रकाशन के कारण मेरे शुभचिंतकों मैं मेरी आलोचना होने लगी। अधिकारी जी और रामावतार त्यागी जी ने मुझे समझाया कि लेखन की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ जाने से उसकी गुणवत्ता घटने लगती है। मैं क्या करता? लिखना मेरी मजबूरी थी, आदत थी, इबादत थी। मेरा जवाब यह था कि जिन्हें ज़ियादा दूर जाना हो वे ज़रा तेज़ ही चलते हैं।

यह मेरा सौभाग्य है कि पाठकों तथा श्रोताओं ने मुझे सदैव प्रोत्साहित किया। पत्र-पत्रिकाओं में छपी कविताओं की प्रतिक्रिया में जो पत्र आते उनसे मेरा संदूक भर गया। प्रणय-गीतों से जो शुरुआत हुई वह प्रेमेतर जीवन और समाज से जुड़कर कल्पना, भावातिरेक, माधुर्य से होती हुई कटु यथार्थ-बोध तक जा पहुंची। बस दिल पर जो बीता वह क़लम ने काग़ज़ पर उतार दिया। गाकर पढ़ नहीं पाता, फिर भी लय और तुकों से कभी अलग नहीं हुआ। बेतुकी कविताएं मुझे भातीं नहीं।

मुझे लगता है कि एकरसता और नीरसता पर्याय हैं। इस्लियर मैंने कभी किसी वर्ग, गुट या काव्य-धारा से जुड़ने की कोशिश नहीं की। मैं जानता हूँ कि जीवन का सबसे बड़ा सत्य परिवर्तन है। कोई भी चीज़ स्थायी नहीं होती। कविता में भी शाश्वत तत्व जैसा कुछ नहीं है। परिस्थितियां बदलती हैं, तो मनःस्थितियां बदल जाती हैं। मनःस्थितियां बदलती हैं तो अभिव्यक्तियाँ भी बदल जाती हैं। कुछ मित्रों को शिकायत है कि मैं गीत की मर्यादाओं को लाँघ कर प्रयोगों की महत्वकांक्षाओं की दुनिया में पहुंच गया। मैं यह कहना चाहूंगा कि मैंने रूढ़ियों तो तोड़ीं, परन्तु परम्परा तोड़ने की कोशिश नहीं की। कोई बंधन किसी कवि को सुहाता नहीं। वह कुछ भी हो सकता है पर लीकबद्ध नहीं हो सकता। इसलिए मेरे कुछ गीत एक दूसरे से जुड़ मिलते हैं तो कुछ गर्त नई ज़मीन पर खड़े मिलते हैं। मैं तो बस इतना ही जानता और मानता हूँ-'मज़ा कहने का तब है, इक कहे और दूसरा समझे'। अगर मेरे गीत आप अपना लेते हैं तो फिर अन्य कोई लालसा मेरे मन में पल नहीं सकती।

मेरे मन में गीत की परिकल्पना इस रूप में है-

गीत किसी खिलते गुलाब की पाँखुरी
गीत किसी मोहन की मोहन बांसुरी
गीत किसी मंदिर का पावन दीप है
जिसके आगे विनत अंधेरा आसुरी

गीत व्याप्त है हर कोमल सम्बन्ध में
गीत महकता है हर पावन गंध में
कह सकता है कौन कि पहली बार ही
वाणी मुखरित नहीं हुई थी छंद में

कोई मनमौजी विहंग है गीत जो
युग विशेष के बंधन से उन्मुक्त हो
पंख पसार उड़ा करता हर काल पर

इस संकलन के इतने सुन्दर प्रस्तुतिकरण के लिए मैं 'सदाबहार गीतकार' के परिकल्पनाकार तथा संपादक श्री प्रेम किशोर पटाखा, इतनी आत्मीयतापूर्ण भूमिका के लिए विश्वविख्यात कवि श्री लक्ष्मीशंकर वाजपेयी और उत्साहपूर्ण प्रकाशन के लिए श्री देवेंद्र कुमार को ह्रदय से धन्यवाद देता हूँ।