मेरी ख़ुश्क आँखों में कुछ पत्थर से ख़्वाब हैं / प्रतिभा कटियार
मुझे माफ़ कर देना, प्रिय !
इस बार बसन्त के मौसम में
मेरी हथेलियों में नहीं हैं
प्रेम की कविताएँ
बसन्त के सुन्दर कोमल मौसम में
मेरी आँखों में उग आए हैं
पत्थर से कुछ ख़्वाब
ख़्वाब जिनसे हर वक़्त रिसता है लहू,
जो झकझोरते हैं
उदास मौसमों को बेतरह
ख़्वाब जो चिल्लाकर कहते हैं कि
बसन्त का आना नहीं है
सरसों का खिल जाना भर
नहीं है बसन्त का आना
राग-बहार की लहरियों में डूब जाना
कि ज़रूरी है
किसी के जीवन में बसन्त बनकर
खिलने का माद्दा होना
मुझे माफ़ करना, प्रिय कि
कानों में नहीं ठहरते हैं सुर,
न बहलता है दिल
खिले हुए फूलों से
न अमराइयों की ख़ुशबू और
कोयलों की कूक से
सुनो, जरा अपनी हथेलियों को आगे तो करो
कि इनमें बोनी है प्यार की फ़सल
फैलाओ अपनी बाँहें
मुझे आलिंगन में लेने के लिए नहीं
अपनी तमाम उष्मा मुझ में उतार देने के लिए
आओ हम मिलकर तोड़े दें
जब्त की शहतीरें
निकलें नए सफ़र पर
और ढूँढ़कर लाएँ ऐसा बसन्त
जो हर देह पर खिले
धरती के इस छोर से उस छोर तक
ऐसा बसन्त
जिसे ओढ़कर
सर्द रातों की कँपकँपी कुछ कम हो सके
और जिसे गुनगुनाने से
नम आँखों में उम्मीदें खिल सकें
इस बार मेरी अँजुरियों में
नहीं सिमट रही
पलाश, सेमल, सरसों के खिलखिलाहट
मेरी ख़ुश्क आँखों में
कुछ पत्थर से ख़्वाब हैं
तलाश है उस बसन्त की
जो समय की आँख से आँख मिलाकर
ऐलान कर दे कि
मैं हूँ, मैं रहूँगा....