भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी ग़ज़ल भी रही इस तरह ज़माने में / मधुरिमा सिंह
Kavita Kosh से
मेरी ग़ज़ल भी रही इस तरह ज़माने में,
फ़कीर जैसे हो पीरो के आस्ताने में ।
ये और बात कि अहसास खा गया धोखा,
तुम्हारी याद थी शामिल तुम्हे भुलाने में ।
इस एहतियात से मैंने कहें हैं सारे शेर,
तुम्हारा नाम न पढ़ ले कोई ज़माने में ।
सिवाय इसके कि अपनी ख़बर नहीं उसको,
न पाई कोई कमी आपके दिवाने में ।
तेरी किताब में वो इक वरक जो सादा है,
मेरा वजूद है उतना तेरे फ़साने में ।