Last modified on 19 दिसम्बर 2014, at 10:34

मेरी छाती धड़कती है निर्वस्त्र मन को छूने पर / नीलोत्पल

वे अनियमितताएँ और असभ्यता पसंद है मुझे
जहाँ रखना नहीं होता ख़ुद को इस तरह
कि तख़्ती लगाकर घूमना पड़े अपने चरित्र की
छोड़ना पड़े अपना बनाया हुआ आकाश
जहाँ साधु और तंत्र चरितार्थ नहीं होते

ये एक समय की बानगी है कि
कोई भी ढंग, बेढंगा कहा जा सकता है

मेरे पास वे शब्द भी हैं
जिन्हें निर्लज्जता से छूता हूँ
वे जीवन जिनकी धरती नहीं
उनमें रखता हूँ क़दम

मेरी छाती धड़कती है
निर्वस्त्र मन को छूने पर
यहां नहीं होता किसी तरह का मान या अपमान

बस यह घूमती पृथ्वी
और उनमें घोले हुए हमारे रंग
जिनकी सूरतें दिखती हैं आईने के पार भी

मैं जिस सूरज को देखता हूँ
वह आज भी रोशनी डालता है
उन अँधेरी जगहों में
जहाँ नैतिकता और सच नहीं पहुँचते

जब भी यह बात ध्यान आती है
कि जीवन में कवि होने का अर्थ ही
चढ़ा दिया जाना है अपने बनाए सलीब पर
तब दर्द हमारे भीतर आता है इस तरह
जैसे हम उतार रहे हों उलझी पतंगें पेड़ों से

अंततः हम सफल नहीं होते

क्योंकि हम सफल होने नहीं आए हैं
हम लौट जाते हैं अपने बनाए जंगलों में
जहां हम शुरुआत करते हैं पत्थरों से
और पत्थर कहीं से भी अनैतिक और असभ्य नहीं ।