भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा / शकील बँदायूनी
Kavita Kosh से
मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा
तेरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िन्दगी से प्यारा
वो अगर बुरा न माने तो जहाँ-ए-रंग-ओ-बू में
मैं सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूँढ लूँ सहारा
ये फ़ुलक फ़ुलक हवायेँ ये झुकी झुकी घटायेँ
वो नज़र भी क्या नज़र है जो समझ न ले इशारा
मुझे आ गया यक़ीं सा यही है मेरी मंज़िल
सर-ए-रह जब किसी ने मुझे दफ़्फ़'अतन पुकारा
मैं बताऊँ फ़र्क़ नासिह, जो है मुझ में और तुझ में
मेरी ज़िन्दगी तलातुम, तेरी ज़िन्दगी किनारा
मुझे गुफ़्तगू से बढ़कर ग़म-ए-इज़्न-ए-गुफ़्तगू है
वही बात पूछ्ते हैं जो न कह सकूँ दोबारा
कोई अये 'शकील' देखे, ये जुनूँ नहीं तो क्या है
के उसी के हो गये हम जो न हो सका हमारा