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मेरी टेर सुनहुँ गिरिधारी! / स्वामी सनातनदेव

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राग काफी, तीन ताल 3.8.1974

मेरी टेर सुनहु गिरिधारी।
अड़ो सुधारत हो तुम सबकी, जो-जो टेरत तुमहिं विहारी!
दु्रपदसुता गजराज आदि बहु भक्तनकी करवर तुम टारी।
जो-जो आरत ह्वै टेरत हरि! निश्चय ही तुम करहु सुखारी॥1॥
हौ हूँ द्वार तिहारे आयो प्रीतम! सबकी आस विसारी।
भारी भीर परी जो मोपै जानत हो सो प्रभु! तुम सारो॥2॥
तजे बन्धु अरुतजी आस निज, रह्यौ न कोउ अवलम्ब विहारी!
केवल आस तिहारी प्यारे! फिर काहे मैं रहहुँ दुखारी॥3॥
चहों न रिधि-सिधि भक्ति-मुक्ति कछु, सब ही प्रीतम! लागहिं खारी।
केवल एक चहों तुव पद-रति, तामें का सूमता तिहारी॥4॥
अपनो अब लागत न कहूँ कोउ, अपने एक तुमहि बनवारी।
तै तुव प्रीति-प्रतीति बिना प्रिय! पल-पल भयो मोहि अब भारी॥5॥
दरस-परस की तरस लगी है, ताहि सरस कीजै गिरिधारी।
सदा-सदा मैं स्याम! तिहारो, फिर क्यों भये निठुर भयहारी॥6॥