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मेरी तहरीरों का महवर एक बे-सर फ़ाख़्ता / जावेद अनवर
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मेरी तहरीरों का महवर एक बे-सर फ़ाख़्ता
मेरा नारा ख़ामोशी मेरा पयम्बर फ़ाख़्ता
एक आँगन क़हक़हों और सिसकियों से बे-ख़बर
छत पे इक परचम फटा सा और दर पर फ़ाख़्ता
तेरे रस्तों की रूकावट शाख़ इक जैतून की
तेरे ऐवानों के अंदर जागता दर फ़ाख़्ता
शाम प्यारी शाम उसपर भी कोई दर खोल दे
शाख़ पर बैठी हुई है एक बे-घर फ़ाख़्ता
एक जानिब उजले पानी का बुलावा और हुआ
दूसरी सम्त इक अकेली और बे-पर फ़ाख़्ता