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मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे / हरिवंशराय बच्चन

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मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।

एक लहर उठ-उठकर फिर-फिर
ललक-ललक तट तक जाती है,
उदासीन जो सदा-सदा से
भाव मरी तट की छाती है,
भाव-भरी यह चाहे तट भी
कभी बढ़े, तो अनुचित क्या है?
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।

बंद कपाटों पर जाकर जो
बार-बार साँकल खटकाए,
और न उत्तर पाए, उसकी
ग्लानि-लाज को कौन बताए,
पर अपमान पिए पग फिर भी
इस डयोढ़ी पर जाकर ठहरें,
क्या तुझमें ऐसा जो तुझसे मेरे तन-मान-प्राण बँधे-से।
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।