भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी दीनी है मटुकिया फोर / ब्रजभाषा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

मेरी दीनी है मटुकिया फोर जसौदा तेरे लाला ने॥ टेक॥
दधिकी मटकी सिर पर धरकर मैं उठधाई बड़े भीर।
लूट-लूट दधि मेरौ खायौ मटुकी तो दीनी फोर॥ जसोदा.
मटुकी की तो मटकी फोरी बइयाँ दई मरोर।
मोसे कहै मेरे संग नाचदै कर बिछुअन घनघोर॥ जसोदा.
इत जाऊँ तो जमुना गहरी ऊँची लेत हिलोर।
इत जाऊँ तो निकसन दैं न ग्वाल बड़े ही कठोर॥ जसोदा.
मोय अकेली जान कै कान्हा बहुत दिखाबे जोर।
कहा करूँ कित जाऊँ याने कर-कर डारी तोर॥ जसोदा.
नाम बिगारौ तिहारौ याने ली बेशरमाई ओढ़।
साड़ी झटकि मसिक दई चोली माला दीनी तोड़॥ जसोदा.