भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी नगरी में आकर तो / सुधा गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी नगरी में आकर तो
कोमल भी पत्थर बन जाता ।
मैं किसका अपराध कहूँ यह
तुम्हें दोष क्यों दूँ मैं साथी
मेरी दुनिया में आकर तो
पावस का पहला बादल भी
प्रलय-मेघ बन विष बरसाता ।
आशा आती पर क्षण भर को
मुसका, वह विलीन हो जाती
इस नगरी की रीत यही है
सन्ध्या का आशामय तारा
धूमकेतु बनकर रह जाता ।
क्या तुम सुनना चाहोगे प्रिय
मेरी करुणा-भरी कहानी ?
कथा यहीं तक बस सीमित है
स्वाति-बूँद का जल आकर भी
कुलिश कठोर बना रह जाता ।