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मेरी नवासी / अनामिका अनु

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जब मैं नहीं रहूँगी
तुम इस लाल सीढ़ी पर एकांत
की ख़ोज में जब-जब बैठोगी
यह वही एकांत होगा
जिसे मैं जी रही हूँ अब
मेरे जुठाए इसी एकांत को तुम ग्रहण करोगी
मेरी नन्ही गौरैया!

तुम शाम के चार बजे बैठना दूसरी सीढ़ी पर
धूप का एक जाता हुआ एक टुकड़ा
तुम्हारे पैरों पर फ़ैल जाएगा
यह स्पर्श भी मेरा भोगा हुआ होगा
जो तुम भोग रही होगी
यह हमारा साझा स्पर्श सुख होगा

तुम सुनोगी तोते,बिल्ली, टकाचोर,कोयल ,कौवों
की आवाज़ें
ये वे ध्वनियां हैं जिन्हें मैंने भी चखा है
बैठकर बिल्कुल यहीं
ये मेरी सुनी ध्वनियां होंगी
जो तुम सुनोगी
मैं दूर जाकर भी
यह ध्वन्यात्मक सुख और दुःख तुमसे
बाँट रही होऊँगी

जब तुम सामने देख रही होगी
यही आकाश होगा
यही वृक्ष
वृक्ष शायद तब इतने सघन नहीं होंगे
शायद इतने अधिक भी नहीं
मगर एक भी हुए तो
वह आकाश और वह‌ हरा वृक्ष
मेरी नज़र जुठाई होगी

हम दोनों दो अलग काल में
एक उपस्थित, एक अनुपस्थित
साझा कर सकेंगी
कई सुख और दुःख
अनुपस्थिति और उपस्थिति की सीमा से परे