मेरी पलकों पे ठहरी हुई धूप है / निश्तर ख़ानक़ाही
ये जो फैली हुई है दरो-बाम* पर
जिसको कहते हैं सब चाँदनी, धूप है
घर से बाहर निकलकर तो देखो ज़रा
ये ख़ुनक* रोशनी रात की धूप है
अपने कमरे के दरवाज़े मूँदे हुए
दिन को बिस्तर में तारे उगाता हूँ मैं
सिमटी-सिमटी सी, नादिम सी, ख़ामोश सी
मेरे आँगन में बैठी हुई धूप है
सर-बुरीदा*, घनी घास के दरमियाँ
वो वादी है, उसमें उतरते हुए
सर उभारा तो देखा वही हिद्दते*
वो ही लू के थपेड़ें, वही धूप है
तुम उन्हीं वादियों में डुबो दो मुझे
डूब जाता है झुलसा हुआ दिन जहाँ
मेरी आँखों में सूरज है दहका हुआ
मेरी पलकों पे ठहरी हुई धूप है
आस्माँ! तेरी बाहों से लिपटा हुआ
कोई आवारा बादल का टुकड़ा भी है
अब तो पत्ते का भी सर पे साया नहीं
जिस तरफ भी चलो, धूप ही धूप है
अब वो मौसम कहाँ है, वो झीलें कहाँ
मैं जो पूछूँ भी तो क्या बताए कोई
पर सुखाते थे आबी परिंदे जहाँ
क्या ये बस्ती वही है, वही धूप है
मैं कि जाड़ों की रातों का ठिठुरा हुआ
तेरे नज़दीक आया हूँ ऐ जिंदगी
इक किरन मेरी झोली में भी डाल दे
तेरी मुट्ठी में तो सुबह की धूप है।
1- दरो-बाम- छत, दरवाज़े
2-ख़ुनक- शीतल
3-सर-बुरीदा- छिली कटी हुई
4-हिद्दते- जल पक्षी