भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी प्यास वो यूँ बुझाने चले हैं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
Kavita Kosh से
मेरी प्यास वो यूँ बुझाने चले हैं
समुन्दर का पानी पिलाने चले हैं
उन्हें कैसे महबूब अपना समझ लें
निवाला जो मुँह का छुड़ाने चले हैं
जिन्हें ज़िंदगी ने निरन्तर रुलाया
वो दिवाने जग को हँसाने चले हैं
मज़ाहिब के हल यूँ दिलों पे चला कर
वो अब फ़स्ल कैसी उगाने चले हैं
उजड़ ही गई हम ग़रीबों की बस्ती
नगर ख़ूबसूरत बनाने चले हैं
परिन्दों के पर नोच कर अब दरिन्दे
उड़ानों के सपने दिखाने चले हैं
ज़माने ने अक्सर भुलाया है उन को
ज़माने के जिन से फ़साने चले हैं
हुए बदगुमाँ क्यूँ 'यक़ीन' आज इतने
हमें वो हमीं से लड़ाने चले हैं