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मेरी प्रति चेष्टाओं के स्रष्टा, द्रष्टा, भोक्ता, प्राण! सुनो / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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मेरी प्रति चेष्टाओं के स्रष्टा, द्रष्टा, भोक्ता, प्राण! सुनो।
कहते थे ”वह भूलता न प्रातः देखा तेरा स्नान सुनो।
तुम कनक-लता-सी मृदु काया थी रही सलिल से सींच प्रिये।
रखती थी बार-बार सरसिज आनन सलिलांजलि बीच प्रिये।
करती थी केलि-निरत कर से निज वसन सलिल को दान प्रिये।
थी पिहक-पिहक गा रही कोकिला-स्वर में गुनगुन गान प्रिये”।
यमुना-तटचारी! आ, विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥115॥