भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी बिचारी / भगवती चरण शर्मा 'निर्मोही'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बालापन<ref>बचपन</ref> से ही मिन<ref>मैंने</ref> गैल्या<ref>साथी</ref>, सदा दुख का दीन बितैने,
खोटी-खारी<ref>खरी-खोटी</ref> लोखू<ref>लोग</ref> की सुणिने, इथैं-उथैं<ref>इधर-उधर</ref> की ठोकर खैने।
हूँद<ref>जाड़ा</ref> कंपिकी कटीने रात, रूड़ो<ref>गर्मी</ref> डाल्यूँ<ref>डालियों</ref> का छैल<ref>छाया</ref> बितैने,
वर्षा ऋतु मा दिवरों उनाये, कई एक चिन्ता तब ऐने।

2.

कभी कबड्डी गिलिडंडा ही, खेलि-खेलिकी दीन गँवैने,
पढ़ि-लिखि छौं फिर कविता कैने, ओर-पोर<ref>आर-पार</ref> का ध्यान मिटैने।
इना मयाल्दू<ref>प्यारा</ref> त्वै ये की भी, द्वी छूवी<ref>बात</ref> त्वैमा कभि नि लगैने,
अपणा दुख का दुखड़ा सुणैकी, रोज त्यारा भी आँसू बगैने।

3.

कभी खूब सी आँगड़ी<ref>अँगरखा</ref> चदरी, धोती मैं त्वै कुनी ल्हायो,
मेरा मोर<ref>द्वार</ref> तिन अरो बिचारी, कभी पेट भरि खाणु नि खायो।
हँसुली-धगुली<ref>कंगन</ref> दूर रई पर, एक सूत भी मिन<ref>मैंने</ref> नि गढ़ायो<ref>बनवाया</ref>,
त्यरा<ref>तुम्हारा</ref> नाक को मुरखलु<ref>लौंग</ref> तक भी, पापी पेट की भेंट चढ़ायो।

4.

लाईं-पैरीं<ref>ठाठ</ref> देखि बिराणी<ref>दूसरों</ref>, कभी त्वै कु तैं डाह नि आयो,
अलाणि<ref>यह</ref> चीज ल्हाँ, फलाणि<ref>वह</ref> ल्हाँ, बोलकि मेरो ज्यू<ref>हृदय</ref> नि जलायो।
जाणदू छौं मैं कभी एक दिन भी, त्वै सन सुख नि दे पायो,
किन्तु त्वै सनै रत्ती भर भी, पछतावा याँ को नि आयो।

5.

ऐ<ref>आया</ref> छौ त्वै सन सुखी करण को, मैं मु<ref>मेरे पास</ref> जब कुछ समय बिचारी,
हाय विधाता! निष्ठुर त्वै सन, छिनण लग्यूँ छ मैं से प्यारी।
चोट लगैकी भारी मन पर, जाणी छै तू अरी अगाड़ी<ref>आगे</ref>,
जै<ref>जा</ref> ले, कखी जग्वाली<ref>प्रतीक्षा करना</ref> मैं सन, औलो मैं भी त्यरा पिछाड़ो<ref>पीछे</ref>।

शब्दार्थ
<references/>