भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी मज़लूमियत पर ख़ून पत्थर से निकलता है / मुनव्वर राना
Kavita Kosh से
मेरी मज़लूमियत पर ख़ून पत्थर से निकलता है
मगर दुनिया समझती है मेरे सर से निकलता है
ये सच है चारपाई साँप से महफ़ूज़<ref>सुरक्षित</ref>रखती है
मगर जब वक़्त आ जाए तो छप्पर से निकलता है
हमें बच्चों का मुस्तक़बिल<ref>भविष्य</ref>लिए फिरता है सड़कों पर
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है
शब्दार्थ
<references/>