भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी मुर्दहिया / एस. मनोज
Kavita Kosh से
दुनिया बदलती रहती है
प्रतिदिन प्रतिपल
बदलाव के कारकों ने लाए
ज्ञान युग, विज्ञान युग
संचार क्रांति के महान युग
लेकिन मैं?
अभिशप्त झेल रहा कबीला युग
सड़कों के किनारे, पटरियों के किनारे
तंबुओं में पड़ी जिंदगी
जीवन बचाने को, इज्जत बचाने को
कपड़े नहीं, घर नहीं
शिक्षा नहीं, स्वास्थ्य सुविधा नहीं
दो गज जमीन नहीं।
जब बदल रही थी पूरी दुनिया
फिर क्यों नहीं बदली मेरी दुनिया?
अनायास, अकारण
या फिर मैं
हुआ किसी साजिश का शिकार
नई पीढ़ी के लोगो
मेरा जीवन तुम्हारे शोध का विषय है
पता करो
मंगल और चांद पर जाते समय तक भी
आदिम सभ्यता का प्रतिनिधि मैं
बिल्कुल बेबस और लाचार
क्यों पड़ा हूँ?
क्या किसी राजनीति ने
किसी अर्थनीति ने
किसी …