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मेरी यही कमाई है / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
Kavita Kosh से
कहाँ चले हो प्यार लुटाने कैसी मन में आयी है ?
नहीं जिन्दगी शेष बचा है यह तो बस परछायी है।
पगली प्यास भटकती जीवन मेलों में रस पाने को,
नहीं स्वयं के मानसरोवर पर श्रद्धा टिक पायी है।
कितने ही मासूम खेत, खलिहा बाग बन कटे मिटे
दरक रही धरती की छाती नगरों की प्रभुतायी है।
धुँआ, धूल, लू लपटें, पत्थर,सर्दी, शोषण पर शोषण,
आँसू आँसू हुई जिन्दगी फुटपाथें को भायी है।
घूँ घट में छिप गयी घटाएँ सावन की शर्मीली सी
नैनों से गिर रही बिजलियाँ मन कुटिया घबरायी है।
गीत, गजल, दोहा, मुक्तक, कुछ छनद कवित्त सवैये हैं
यही रत्न मेरे जीवन के, मेरी यही कमायी है।