भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी वफाओं का मुझको यही सिला देकर / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
मेरी वफाओं का मुझको यही सिला दे कर
गया है कोई मुझे दर्द अनकहा दे कर
हमारी चाहतें ख़्वाबों में ढल गयीं अब तो
चले गये वो मुरादों का सिलसिला दे कर
चराग़ बुझने लगे देख लो उमीदों के
जला दो आज इसे वक्त की हवा दे कर
चले भी आओ जरा जश्ने चरागां कर लें
न लौट जाओ ग़मे हिज्र की दुआ दे कर
उठीं वो आँधियाँ तूफ़ान थम नहीं पाये
तुम्हें न रोक सकी ग़म का वास्ता दे कर
कदम तो राहे वफ़ा में थे लड़खड़ाये पर
तसल्लियाँ न मिलीं मुझको ही जफ़ा दे कर
तड़प रहे जो लिये जख़्म आशनाई के
उन्हें भी राहतें बख़्शो कोई दवा दे कर