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मेरी विनती इतनी है / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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सारे तुम अभिशाप मुझे दो
जगभर के सन्ताप मुझे दो।
झोली फैलाकर ले लूँगा
लाखों दुख प्रभु आप मुझे दो।
पर मेरी विनती इतनी है-
मेरे प्रिय को पीर न देना।
उसका मन है नव कलिका-सा
अन्तर्मन तुम चीर न देना ।
जग ने उसको बहुत सताया
पल-पल पग-पग दुख पहुँचाया।
उसके पथ के शूल हटाना
घर-आँगन तक फूल बिछाना।
घिरे दुखों में, वह झुँझलाए
लेकिन मुझसे दूर न जाए।
मैं तो केवल खाली गागर
उसमें भरा प्यार का सागर ।
मैं सन्ध्या का सूरज ठह्ररा
फिर भी नेह बहुत ही गहरा ।
उसको सुख दो वह मुस्काए
पीड़ा मेरे हिस्से आए।