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मेरी सुबहों मेरी शामों पे बुलडोज़र चला देगा / डी. एम. मिश्र
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मेरी सुबहों मेरी शामों पे बुलडोज़र चला देगा
वो ज़ालिम है तो क्या यादों पे बुलडोज़र चला देगा
कहाँ सोचा था दिल देने से पहले बेवफ़ा होगा
मेरा महबूब अरमानों पे बुलडोज़र चला देगा
सजाये रात भर सपने मगर यह खौफ़ था हावी
कोई सूरज सुबह ख़्वाबों पे बुलडोज़र चला देगा
नज़र उसकी गड़ी रहती मेरी गाढ़ी कमाई पर
यही डर है वो फिर नोटों पे बुलडोज़र चला देगा
अगर राजा हुआ सनकी तो क्या होगा रिआया का
सरों को काटकर लाशों पे बुलडोज़र चला देगा
ग़रीबों की मदद के शोर में डूबे रहेंगे हम
कोई धनवान झोपड़ियों पे बुलडोज़र चला देगा
किसी माँ-बाप की बेटे से क्या होती यही ख़्वाहिश
बड़ा होकर वो उम्मीदों पे बुलडोज़र चला देगा