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मेरे अंदर कहीं कुछ टूटता है / रविकांत अनमोल
Kavita Kosh से
मेरा दम मेरे अंदर घुट रहा है
कहाँ है जो दरीचे खोलता है
हमेशा आइनों से झाँकता है
न जाने क्या वो मुझसे चाहता है
वो अपनी हर नज़र से हर अदा से
हज़ारों राज़ मुझपे खोलता है
मैं जितना इस जहाँ को देखता हूँ
मेरे अंदर कहीं कुछ टूटता है
जवाब उनके नहीं मिलते कहीं से
सवाल ऐसे मेरा दिल पूछता है
मैं शायद ख़ुद को खो के तुम को पा लूँ
मगर इतना कहाँ अब हौसला है
मैं पल पल सुन रहा हूँ बात उसकी
मेरे कानों में कोई बोलता है