मेरे अघका पार नहीं है / हनुमानप्रसाद पोद्दार
मेरे अघका पार नहीं है।
इन्द्रिय-लोलुप मैं अति भारी,
खोकर कुल-मर्यादा सारी,
कुत्सित-कर्मी अत्याचारी,
कोई अघ इनकार नहीं है॥-मेरे०॥-१॥
जगमें जानी भक्त कहाता,
भाँति-भाँतिके तन-सुख पाता,
रखता सिर्फ भोगसे नाता,मेरे
या यह पाप-प्रसार नहीं है?॥-मेरे०॥-२॥
दिव्य प्रेमकी बातें बकता,
कामानल अति हृदय धधकता,
पाप-प्रवाह न पलभर रुकता,
या यह भ्रष्टाचार नहीं है?॥-मेरे०॥-३॥
अपने को ‘चैतन्य’ बताता,
प्रेमी सज, रस-अश्रु बहाता,
पर मन हरि-रस-रूखा पाता,
या यह दुष्टस्नचार नहीं है?॥-मेरे०॥-४॥
मिथ्या गाता, मिथ्या रोता,
मिथ्या सारी सुध-बुध खोता,
मिथ्या ही मूर्छागत होता,मेरे
या यह मिथ्याचार नहीं है?॥-मेरे०॥-५॥
कभी ‘तथागत’ बन इतराता,
‘दुःख-दुःख’की टेर लगाता,
मनमें बँधा भोग-सुख-ताँता,
या यह छल-विस्तार नहीं है?॥-मेरे०॥-६॥
खुद अवतार कभी बन जाता,
खुलकर खूब पाँव पुजवाता,
तरह-तरह छल-छद्म बनाता,
या यह कपटाचार नहीं है?॥-मेरे०॥-७॥
रचकर ढोंग जगतको छलता,
महापाप भी मन नहिं खलता,
हरि-हित होती नहीं विकलता,
या यह असुराचार नहीं है ?॥-मेरे०॥-८॥
देख रहे सब अन्तर्यामी!
छिपा न कुछ भी तुमसे स्वामी!
तुमसे भी छल करता कामी,
मुझ-सा और गँवार नहीं है!॥-मेरे०॥-९॥
मैं अघ सहज सदा ही करता,
कभी नहीं, कैसे भी डरता,
क्षमामूर्ति तुम, दुष्कृत-हर्ता,
या यह कृपा अपार नहीं है?॥-मेरे०॥-१०॥
जिसने शुभ-धारा सब खोई,
मुझ-सा नीच न दूजा कोई,
पर तुम-सा न दयामय कोई,
ऐसा जग दातार नहीं है॥-मेरे०॥-११॥
मैं अपराधी सदा तुम्हारा,
पर मैं नित्य तुम्हें अति प्यारा,
कभी न तुमने मुझे बिसारा,
या यह अजब दुलार नहीं है?॥-मेरे०॥-१२॥
सदा तुम्हारा प्यार पा रहा,
सदा तुम्हारा दिया खा रहा,
तब भी नित विपरीत जा रहा,
कुछ भी सोच-विचार नहीं है!॥-मेरे०॥-१३॥
नीच, दोष मम अन्तहीन है,
किंतु तुम्हारी क्षमा पीन है,
होती कभी न तनिक क्षीण है,
उसका कोई पार नहीं है॥-मेरे०॥-१४॥
करते कृपा न कभी अघाते,
गिरे हुएको स्वयं उठाते,
हाथ पकड़ सन्मार्ग चलाते,
तुम-सा प्रेमाधार नहीं है॥-मेरे०॥-१५॥
अपना विरद पुनीत निभाते,
दोष भूल सिर हाथ फिराते,
ले निज गोद नित्य दुलराते,
या अथाह यह प्यार नही है?
मेरे अघका पार नहीं है॥-मेरे०॥-१६॥