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मेरे अनुज मनुज! प्रिय मेरे / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मै हू वृक्ष, मौन है मेरा
धर्म-कर्म-जीवन-दर्शन,
किन्तु सहेजे हुए त्याग तप
करता सत चित का सर्जन।

अनबोली चेतना निरन्तर
सत्प्रेरणा जागती है,
रहकर मौन जिन्दगी की
गति का रहस्य समझाती है

मेरे अनुज मनुज!प्रिय मेरे
धरा धाम के दीप प्रखर,
हाय! तोड़ सम्बन्ध प्रकृति से
क्यों हो या निठुर नश्वर!

मैं हू वृक्ष, स्वच्छ जीवन धन
वन उपवन सन्देश लिये-
रहा बाचता मौन युगों से
किन्तु न तू ने कान दिये।

मैनें क्षमा-दया-ममता के
मन्त्र पढे आचरण किया।
जिजीविषा को पूज
शान्ति सद्भाव धर्म का वरण किया।

जीवन को जीवन्त प्रगति के
नव अभिनव सोपा़न दिये।
प्राणवायु के संशोधन हित
नूतन अनुसंधान किये।

मैने करते हुए त्याग तप
जीवन हित बलिदान किया,
किन्तु स्वार्थ से ऊपर उठकर
कभी न तू ने ध्यान दिया

यद्यपि यह समस्त धरती-
मेरी है, मुझसे रूपमती,
बहुविधि लता प्रसून सहेजे
प्राणवन्त है भाग्यवती

हाय ! स्वार्थ की बलिबेदी पर
सबकुछ तूने चढा़ दिया।
नेत्रवन्त होकर भी निज पद
अंगारों पर बढा दिया।

पर्वत फोडे़, नदी रूलाई,
और उजाड़ रहा वन को
बना रहा बंजर वसुधा को
हाय! हो गया क्या मन को?

कितना गरल पिलाया तूने
प्राणवायु से पूछ जरा ?
है नीरस यौवन बसन्त क्यों
दुखी आयु से पूछ जरा?

धीरे-धीरे नष्ट कर रहा
क्योंकर जीवन के साधन?
ढूढ़ रहा क्यों मरूस्थली में
शीतल जल निर्मल चन्दन?

जो सुख के साधन हैं
उनपर तो अंगारे डाल रहा,
और कहीं सुख की तलाश में
सैकत भाण्ड खगाल रहा।

जगती की आशा का निर्झर
आखिर क्यौं विपरीत चला?
जाने कैसे अमत कुम्भ में
काल कूट विष प्रखर मे ढ़ाला?

अपनी जीवन- ज्योति आधियों
को है सौंप रहा क्योंकर?
ज्ञानी होकर अज्ञानी- सा
यह आचरण रहा क्यौं कर?

आदिम सहचर प्रकति प्रिया के
आश्रम संस्कृति के सर्जक
नदी, वृक्ष, वन, गगन, धरा के पावन
कण-कण के पूजक।

कहा तुम्हारी वह बाधवता
कहा प्रेम वह परम उदार ?
कहा तुम्हारी पावन सेवा
बोलो धरती के श्रंगार!

कैसे जन्मा तेरे भीतर
तृण्णाओं सघन निनाद?
बाझ हो गयी हर्ष कामना
चिर सहचर हो गया विषाद।

इच्छाओं की तुंग-तरंगो
मे डूबा आकण्ठ अखण्ड।
सतोगुणी जीवन की धारा
निगल गया मरू-दैत्य प्रचण्ड।

अरे! साधुता के वलक्ष पट पर
ये छोटी कहा पडी?
किसने दूषित किया मनस को
खुशियों की बगिया उजडी?

कथनी-करनी की समानता
कहा खे गयी है प्यारे!
यज्ञ भावना अश्रु सहेजे
अब जाये किसके द्वारे?

बोझिल जीवन के तट से
उठ गया साधुओं का डेरा,
देखो जिधर पिशाचों ने ही
जीवन के तट को घेरा।

ऊष्ण अश्रु की धाराओ मे
कब तक तैरेंगी यह नाव?
नहीं विफल कर सकते पाण्डव
युग के शुकनी का यह दाव

आपस का विदेष मिटेगा
किन्तु मिटाकर जीवन-बाग
अभी समय है अभी समय है
जाग मनुज! तू जल्दी जाग!

अपने ही जीवन प्रवाह में
स्वयं उगा अवरोध रहा,
पाषाणों के हवन कुण्ड में
शांन्ति पर्व को शोध रहा

अरे मनुज! तू रहा प्रकति पर,
आश्रित तब तक सुखी रहा,
प्रेम दया करूणा के कारण
रंच न जीवन दुखी रहा।

जिस तरू की छाया में बैठा
आज उसी को काट रहा,
खोद-खोद पर्वत मलाए
जल से सागर पाट रहा।

सोचा नहीं कभी क्यों तूने
जब धरती जलमय होगी,
जीवन बगिया बोल किस तरह
तब तेरी सुखमय होगी?

जहाँ बहारों के मेले थे
उजड़ गये वे हरित-प्रदेश,
धूल-धूसरित तार-तार
हो गया प्रकति का सुन्दर वेश।

सुरबाला-सी प्रकृतिप्रिया के
अश्रुनिमज्जित युगल नयन
ताक रहे निष्पलक तुम्हारी
ओर मौन करते क्रन्दन।

पाषाणो को प्राणवन्त
प्रतिमाओं मे गढ़ने वाले
स्वयं हुए पाषाण
अरे ओ क्योंकर मानव! मतवाले?

तेरे कठिन कुठाराघातो से
धरती नभ डरते है।
शेष लता के कुन्ज
सुमन के पुन्ज याचना करते है-

ये असीम सौन्दर्य सुधा
के कलस ने फोड़, मनुज! मेरे,
खोल हृदय के नेत्र तोड़
सब लोभ, मोह, मद क घेरे,

पहले जिन्हे परम सत्ता का
रूप समझ कर पूजा था,
था निर्मल मन वाला तू ही
और न कोई दूजा था।

भूल गया कर्तव्य धर्म को
क्यों अधर्म है अपनाया?
दुर्निवार यह दुर्विचार
आखिर कैसे मन मे आया?

जब तुझको क्रियामाण भोग
दोनों का है वरदान मिला,
अरे मनुज! फिर तू ही क्योंकऱ
मनुज-धर्म को रहा हिला?

युगों-युगों से भरे हृदय मे
पीड़ाओ के सागर हैं
जीवन की लहरों का जकडे़
पड़े कालिया विषधर है

लगी हुई है आग मनुजता के
पवित्रतम आगन मे
सूत्रधार है कौन ध्वंस के
बीज बो रहा है मन मे?

चमक रहीं हर ओर प्रदूषण
की तलवारें काली- सी,
लीलाएँ रच रहीं कौन सी
मनुज बुद्धि मतवाली-सी?

कहाँ गया कल्याण तत्व
जिससे ज्योति था मन आगन?
कहाँ गया ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’
का मन्त्र परम पावन?

सघन वनो का मेघाकर्षण
लूट लिया तू ने क्यों कर?
असन्तुलित हो रही वृष्टि से
है अशान्त धरती का उर।

धरती के प्रिय पुत्र!
दलित क्यों ममता है तेरे पग से?
अमृतधारं की जगह बहां क्यों
गरल चेतना के नग से?

तेरे परम दूरदर्शी दृग
क्यों सीमित संकुचित हुए?
क्यों कुछ का कुछ देख रहे हैं
क्यों करूणा से रहित हुए?

आत्म चेतना ही जिनको
सव्र्रत्र दिखायी पड़ती थी
जगभर की पीड़ा अपनी-सी
उर अन्तर मे गड़ती थी।

आज वही गैरों के दुख मे
अपना सुख है दे रहा
और दूसरो के सुख से
हो दुखी फिर रहा बहा-बहा।

आप चेत जा अभी
अन्यथा फिर पछतायेगा,
बुझ जायेगा दिया
कभी फिर कुछ भी दृष्टि न आयेगा।

पशुता याग मनुजता का
कर फिर से वरण देर मत कर
बीत रहा है समय निरन्तर
कुछ न पा सकेगा रे नर!

लौट चेतना की धरती पर
फिर से व्यापक दृष्टि बना
घिरे हुए तम से अन्तस में
ज्योति पर्व सोल्लास मना।

घटा असीम वेदनाओं की
घहरायेगी मन-नभ पर
और बरस कर बन जायेगी
बूँद-बूँद पीडा़ अक्षर।

हाय! डूबकर पीड़ाओं में
उबर नहीं फिर पायेगा
दुख के तमसाविल गह्वर में
घुट-घुट कर रह जायेगा।

तब आयेगा याद वही पथ,
जिसे छोड़ आया है तू
मन क बहकावे मे अपना
भाग्य फोड आया है तू।

पश्चातापों की ज्वालाओं
से तुझको यदि है बचना तो
तो फिर शीघ्र लौट करूणा
के ही पथ पर होगा चलना।

स्वार्थ शून्य परमार्थ निकेतन
मै युग-युग से बना हुआ,
तेरे द्वारा सृजित प्रदूषण
की कारा से सना हुआ,

किन्तु अचल कर्तव्य पुन्ज-सा
अब तक हूँ निर्वाक् खड़ा
देख रहा हूँ सब कुछ
फिर भी छुटा क्योंकर धैर्य बड़ा?

अमर हो गयी व्यथा-कथा
जो पली बढी उर मे मेरे,
कौन सुनेगा किसे समय
सब चिन्ताओं के है घेरे।

पीड़ाएँ सहचरी हो गयी
निर्झर से है दृग सहचर
दुख की बगिया मे उठते है
काँटों के दल सिहर-सिहर

बार-बार चुभते है मेरे
तन-मन दोनो है घायल
पागल समझ मारता पत्थर
हाय!मनुज क्यों है पागल

जिसे फूल, फल, अन्न, साक, दल
युग-युग से देता आया।
बदले मे उससे तो केवल
मैनें है दुख ही पाया।

और क्या कहूँ प्रणवायु
जो जगती का आधार परम
उसके शोधन और सृजन का
मैनें रोका कभी न क्रम।

प्राणवायु के बिना जगत
यह जड़ होकर रह जायेगा
तट का उजड़ा भवन
एक दिन धारा मे बह जायेगा।

जीवन की रागिनी मौन होकर के
फिर रह जायेगी।
होकर विवश एक दिन
आँसू-आँसू हो बह जायेगी।

यह असीम आकाश
हँसेगा, एक दिवस तेरे ऊपर,
निराधार होकर पछतायेगा
तू अपनी करनी पर।

अपने ऊपर आप दुरान्तक
तू प्रहार करता क्योंकर?
विसमृत हुई वेदनाएँ
क्यों पीडाएँ सब गयीं बिसर?

वसुधा के चेतना-पुन्ज।
क्यों जड़ता का कर लया वरण?
वाणी तक रह गये
न जाने क्यों तेरे वे सदाचरण?

जिनके कारण तुझे
देवता तके प्रणाम करने आये,
अम्बर के उपहार तुम्हारे
चरणों पर धरने आये

आज वही पग पतन पंथ पर
क्यों है बढे चले जाते
फलित हो उठा कौन पाप है
क्यों न रंच है घवराते

जाग मुसाफिर! देख घ्वंस का
फिर है नर्तन मचा हुआ,
यत्र-तत्र ही धर्म धरा पर
निर्बल-सा है बचा हुआ।

जगा रहा है तुझे जाग उठ
और लक्ष्य पथ पर चल दे,
सहज मनुजता के पोषण पर
फिर से अधिकाधिक बल दे।

लौट प्रकृति की ओर
प्रेम की ज्योति जगा ले निज मन में
एक बार फिर से ऋषि संस्कृति
को अपना ले जीवन मे।

कल-कल गाती हुई
बह उठेगी फिर जीवन की धारा,
मानवता की छवि को
जिसने दिया रूप नित प्यारा

आज वही मानवता फिर से
तेरा मुँह है ताक रही
आँसू भरे हुए नैनों मे
निज अतीत में झांक रही।

मैं हूँ वृक्ष धरा का भूषण
और प्रदूषण क्षारक हूँ।
जीवन का सहचर संचालक
अनुपालक प्रतिपालक हूँ ।

वे भी क्या दिन थे,
धरती पर था जब मेरा ही परिवार
हरित श्रृंग गिरि के समस्त-
थे सरिताओं के फल कछार।

शाखाओं पर लतिकाओं का
दोलन, पुष्पन, फलन अपार,
गंधो के निर्झर बहते थे
पवन संचरण संघ साभार।

अंग-अंग मे महक भरी थी
पात-पात में चमक अनन्त,
पतझर हीन सदा आगन में
रहता था सुखवन्त बसन्त।

कोयल के मृदुगीत चेतना
मन प्राणों मे भरते थे,
पपिहा के ‘पी-कहाँ‘ बोल
वेदना मूक संचरते थे

रंग-बिरंगे तितली के दल
फूलों के रस रंग विशेष,
भौरों का गुंजार पक्षियों का
कलरव माधुर्य अशेष।

आती है जब याद
आज भी हृदय सिहर-सा जाता है,
सुधियों के अथाह सागर में
विवस डूबता जाता है।

धरती से आकाश
एक दिन मुझसे ही था भरा हुआ,
मनो निखिल जगत ही
रँगकर खुद मे खुद ही हरा हुआ।

मेरा ही प्रतिबिम्ब सहेजे
हरति व्योम था निर्मल था,
ओढे हुए नखत पट अम्बर
परम शांत था उज्ज्वल था।

उस असीम सौन्दर्य सुधा का
पान धरा करती रहती,
और वही चेतना हृदय में
मेरे भी थी संचरती।

आज प्रदूषण की ज्वाला मे
रहा न अम्बर चमकीला,
विष के कुम्भ अनन्त पानकर
सकल हो गा है नीला।

देख-देख यह दशा विवश मैं
घुट-घुट कर रह जाता हूँ,
यद्यपि शक्ति अनन्त मिली है
किन्तु न कुछ कर पाता हूँ।

शिव ने पिया एक दिन,
महिमा मै भी सुनता आता हूँ,
नित्य पान करता हूँ विष मै
फिर भी शिव न कहाता हूँ।

सोख लिया तेरी लिप्सा ने
फूलों का वह मधुर सुवास,
सार हीन हो गया वसन्ती
भ्रमरो उल्लास-विलास।

सुरसा मुखी विकट तृष्णाएँ
क्यों न रोकती है विस्तार
निगल रही है नित्य निरन्तर
नैषर्गिक सुषमा सुकुमार।

देख रहा हूँ अपने आगे
अपना ही मै घोर विनाश
तेरे मन की सघन अमा ने
लूटा मेरा हरित प्रकाश।

भंग हो गये स्वप्न सुनहरे
राख हो गयी आशाएँ,
होकर सफल मिला क्या मुझको?
विपदाओं पर विपदाएँ

तिरस्कार अपमान अनादर
और उपेक्षा के उपहार
मुझको मिलते रहे मनुज से
दुख दर्दों के कोश अपार।

मेरा वैभव लूट मनुज
करता आया है मनमानी
सही आदाएँ है लेकिन
नही किसी की है मानी।

आँसू-आँसू कली कली है
विलख रहा पत्ता-पत्ता,
शाखाओं के घाव हरे हैं
व्याकुल है पूरी सत्ता।

कहाँ सुधा के अभिसिंचन से
तृप्त रहा मेरा तनम न?
कहाँ विषैली धाराओं का
गूँज रहा भीषण गर्जन?

कहाँ सुनहरे पटभूषण
प्राची करती थी नित अर्पण,
कहाँ धुएँ की सूखी स्याही
विखर रही तन पर क्षण-क्षण।

जाने किसने चाल चली है?
जाने किसने फेंका दांव?
टिके हुए मजबूत धरा पर
उखड़ रहे है मेरे पाँव।

हाय! विधाता! तू ने कैसा
भाग्य बनाया है मेरा?
टूट न पाया जहाँ अभी तक
सघन संकटों का घेरा।

कहने को तो सृष्टि
प्रगति के पथ पर बढती जाती है
किन्तु पतन के साधन भी तो
खुद ही गढती जाती है।

धधक रही होकर अदृश्य है
सबके निकट प्रलय की ज्वाला,
हाय। उसी मे चुपके चुपके
स्वाहा करता जाता काल।

देख रहा हूँ सब कुछ मै तो
किन्तु न मानव देख रहा
अरे स्वयं के खूने कूप में
स्वयं स्वयं को फेंक रहा।

कमल कभी-कभी अति निष्ठुर
और कभी यह होता क्रूर
भोला कभी कभी दुनियावी
चतुर स्वारथी नर भरपूर।

माटी की काया मे मैनें
देखे रूप स्वभाव अनेक,
किसे कहें हम किसे अधिक हम
सभी एक से बढकर एक।

हाय इसी ने तलवारों से
स्रोणित की सरिताएँ ढाल।
धरती को आरक्त बनाया
किया कलंकित संस्कृति भाल।

माताओं की गोदें लूटी
लूटा मांगो का सिंदूर
सृजन धर्म को आग लगायी
दग्ध किया जीवन भरपूर।


तृष्णाओं की सघन लकीरें
किन्तु न मन से मिटा सका,
लगी हुई कालिमा युगों की
कब जीवन से मिटा सका?